Trimbakeshwar Information
श्री
।।श्री गणेशाय नमः।।

सह्याद्रिशीर्षे विमले वसन्तं गोदावरीतीर पवित्रदेशे ।
यद्वर्शनात्‌पातकमाशु नाशं प्रयाति तं त्र्यंबक मिशमिडे ।।


        श्री क्षेत्र त्र्यंबकेश्वर, गौतम ऋषि जो ब्रह्मऋषि भी थे उनकी तपोभूमि है । सह्याद्रि पर्वतों के शिखरों में बसाहूवा एक पावन क्षेत्र है । इस क्षेत्र की विशेषता अनेक पुराणोमें, ग्रंथो में हमे उपलब्ध होती है । सत्य युग के आखिर में तथा त्रेता युग के प्रारंभ में ब्रह्मऋषि गौतमजी का और उनकी पतिव्रता स्त्री अहिल्या का निवास यह आश्रम था । गौतम ऋषि नित्य खेती (कृषि) का काम करते थे और गौ माता की सेवा करना यही उनका तप और । नित्य कार्य था ।

        उस समय की कथा है, एक बार भारत वर्ष में इस भूखंड में अनेको साल बारिश ही नहीं हुई । वरूण देवता देवराज इंद्र का प्रकोप हो गया। इस कारण दूरदूर तक पानि का दुर्भिक्ष हो गया था । पीने को जल न होने के कारण खेति में भी कोई फसल नहीं हुई । लोगों को खाने को अन्न, और पानी कम पड़ने लगा, तो सारे लोग, ऋषि गण जिस क्षेत्र में जल और अन्न है, उस क्षेत्र की ओर चलने लगे । त्र्यंबकेश्वर क्षेत्र सह्याद्रीके पर्वत शिखरो में तथा गौतम ऋषी की तपस्या से पावन होने के कारण यहाँ मुबलक प्रमाण से जल तथा कृषी तज्ञ गौतमजी के उत्तम तरीके से की हुई कृषि की वजह से यहाँ अन्न भी बहुत था । तो सारे ऋषी गण भाविक लोग गौतमजी के आश्रम में वास करते थे । यहाँ पर बहोत सारे लोगों के आ जाने के कारण इस क्षेत्र में भी पानी और अन्न का दुर्भिक्ष होने लगा तो ब्रह्म ऋषी गौतमजी ने परमकृपालु आशुतोष चंद्रशेखर, भगवान शिव की आराधना की, तपस्या की। उसके फल स्वरूप शिव प्रसन्न हो गये तो गौतमजीने अपनी व्यथा उनको बतायी की बहुत सारे भक्तगण, ऋषि गण मेरे क्षेत्र में आये है । और इंद्र भगवान की अवकृपासे इस क्षेत्र में भी अन्न-पानी की कमी हो रही है । तो आप स्वयं कुछ कृपा कीजिए । जिसने कभी भी अपने भक्तों को नाराज नहीं किया ऐसे परम कृपालु अशुतोष भगवान शिवजिने लोक कल्याण हेतूगौतमजी की प्रार्थना का सम्मान रखते हुए अपने ’स्तक शुशोभित करने वाले चंद्रमा का कुछ छोटा सा भाग निकाल कर दे दिया । और कहा के इसे और कहा के इसे जिस भी जमीन में मिलाओगे उस स्थान में कभी भी जल की आपूर्ति नहीं होगी । ब्रह्म ऋषि गौतमजीने उसको त्र्यंबकेश्वर में जिस स्थानमें मिलाया वहाँ बडा तालाब बना उसे आज गौतम तालाब (गौतमतळ) कहते है। आज भी उस तालाब का पानी कभी भी सुखता नहीं है । ज्योतिलिंग त्र्यंबकेश्वर मंदिरके पीछे आज भी वह तालाब है और लोगों को उस जल का भरपूर उपयोग होता है । ऐसे ब्रह्मनिष्ठ लोक कल्याण के कार्य ऋषी गण, महात्माओं की सेवा, गाय की सेवा अपने कार्य में रहते हुए लोगों की उपजीविका के लिए खेती करनेवाले ब्रह्म ऋषी कृषी तज्ञ गौतमजी की यह तपो भूमि है । हमारा शास्त्र कहता है कि न भवति सम पुण्यम्‌अन्न दानं समानम्‌। अन्न दान करना जितना महत्वपूर्ण कार्य कोई भी नहीं है । और जब अकाल पडा है, लागों को खाने को भोजन नहीं है, पीने को जल नहीं है तब गौतमजी ने इस क्षेत्र में आए हुए ऋषिगण को संभाला उनका पालन-पोषण कई वर्षो तक किया । यह सेवा करते-करते अनेक दिन बीत गये और इस कार्य में उनकी पत्नी अहिल्या भी आये दिन सहायता करती थी । यह पूरा क्षेत्र ब्रह्मगिरी पर्वत के आजु बाजूका मैदानी क्षेत्र में बह्मऋषि गौतमजी चावल (साळी) बोते थे, चावल की खेती करते थे और जितनी आवश्यकता है उतना ही चावल, धान काटकर ऋषिगणोमें, भाविकों में दान देते थे, अन्न दान करते थे । उसके साथ गाय की भी उत्तम तरीके से सेवा किया करते थे । यह उनका नित्य कार्य था, यही तप था, यही भगवान की आराधना थी । क्योंकि वह ब्रह्मऋषि थे, ब्रह्म को जानते थे। आकाल के कारण आए हुए ऋषिगण, भाविक गण उनमें ही ब्र्रह्म है, भगवान उन में ही है, सत्‌चित्‌आनंद रूप भगवान की प्राप्ति उनको अन्नदान, गोसेवा से ही प्राप्त होती थी। इसलिए वही उनका तप था।

        ऐसी सेवा करने के कारण गौतम ऋषि का लोगो में सम्मान बहुत बढ गया । गौतम ऋषि का आदर, सम्मान, ऋषि गणो में, लोगों में बढता हुआ देखकर इंद्र को सहेंन न हो सका, क्योंकि, ‘इंद्र’ देवताओं का राजा है । वरूण जल के देवता है इंद्र, फिर भी शिवजी के कृपा पात्र गौतमजी ने ऋषी गणों की सेवा करने लगे तो इंद्र का महत्त्व कम होता गया ।और गौतमजी का तप बढ़ने और पुण्य बढ़ने लगा । पुण्य से ही सकारात्मक ऊर्जा का वहन अपने शरीर में होता है । और जिसके पास सकारात्मक ऊर्जा है (पॉझिटिव्ह एनर्जी) वही राजा होता है । वही नेतृत्व क्षम माना जाता है । इस लिए इंद्र चिंता करने लगे, गौतमजी के विषय में सोचने लगे की इनका तप कम हो, पुण्य कम हो इनके नित्य कार्य में बाधा उत्पन्न हो, ऐसी चिंता इंद्र जो देवताओं के राजा है, वह करने लगे।

        इंद्र की चिंता दिन ब दिन बढ़ती ही जा रही थी । तो एक दिन इंद्र गणेशजी के पास गए और उनसे प्रार्थना की, आप गौतमजी के तप में कुछ विघ्न कीजिए, क्योंकी ब्रह्मऋषि गौतमजी के तपस्या से, लोक कल्याण की भावना से, कर रहे सेवासे उनका पुण्य इतना बढ़ गया है कि, ‘‘इंद्रासन भी डोल रहा है ।’’ यदि गौतमऋषि चाहे तो मुझे भी शाप दे कर इंद्र से पद छीन सकते है और इसी चिंता में, मैं आपकी सहायता माँगने हेतूयहाँ आपको प्रार्थना करने आया हॅूं। इंद्र की प्रार्थना सुनकर गणेशजी भी उनकी सहायता करने हेतूतैयार हो गए ।

        एक दिन प्रातःकाल में गौतमऋषि अपनी संध्या पूजन में व्यस्त थे, उस समय एक गौ माता उनके खेत मे आई, जिस खेत का धान (साळी) आज अन्नदान में देना है, उसी धान को वह गाय खराब करने लगी, उसका नुकसान करने लगी, गौतम ऋषि ने उस गाय को बाहर निकालने की भरपूर कोशिश की पर गाय और अंदर चली गई, उससे धान का नुकसान होने लगा । उस गाय रूपी गणेश भगवान की माया को गौतमऋषि समझ नहीं सके और क्रोध से गौतमऋषिने उस गाय को अपने हाथ में जो दर्भ (कुशा) से मारा, उस कुशा केही शास्त्र हुए और वह गाय मर गई । गौतमऋषि जो पुण्य से इंद्र को डरा रहे थे । जिससे इंद्र भी डर गया था, उनके हाथ से गौहत्या जैसा महान पाप हो गया । क्योंकी माया से लोभ उत्पन्न हुआ, लोभ से क्रोध और क्रोध में ही पाप होते है । जो नित्य गौसेवा करता था, उसके हाथ से ही गौहत्या जैसा महान पाप हो गया ।

        ‘गोहत्या ब्रह्म हत्यादी पापे, मोजावयास नाहीत मापे’ गौहत्या और ब्रह्महत्या जैसा पाप यदि मनुष्य के हाथ से हो जाए तो उस पाप का मापन करना संभव नही है । ऐसा पाप गौतमजी के हाथ से हो गया । गौहत्या के पाप के कारण उनके किए हुए अन्नदान को कोई भी ऋषि लेने को तैयार नही था । क्योंकी आपके हाथ से गौहत्या जैसा महान पाप हुआ है, हो गया है । लोग जो आश्रम में रहते थेवे सारे जाने लगे, जो ऋषिगण उनका सम्मान करते थे वे भी उनका द्वेष करने लगे, उनसे बात तक करना छोड दिया । गौतमजी को भी अपने हाथ से जो गौहत्या हुई उसका पछतावा होने लगा, तो उन्होने सारे ऋषिगणों से प्रार्थना की । मेरे हाथ से जो पाप हो गया उसका कोई परिमार्जन तो होगा । वो आप मुझे बताओ । गोहत्या जैसे महान पाप से मैं मुक्त होना चाहता हॅूं। आप उपाय बताइए ।

        गौतम ऋषिकी यह प्रार्थना सुनकर ऋषिगणों में एक बालक जो ऋषिवेष मे था, जो स्वयं गोमाता का रूप धारण करके आया था । जो स्वयं गणेशजी थे । वह आगे आकर गौतमजी को उपदेश करने लगे । कि आपके हाथ से जो गोहत्या हो गयी है, उस पाप का परिमार्जन हेतूएक उपाय है । लेकिन वो बहुतही कठिन है । यदि आपमें वह उपाय करने हेतूसामर्थ्य है तो मै बताऊॅंगा । ऐसे वचन सुनते ही गौतमऋषि जो ब्रह्मऋषि थे वह जान गये की यह बालक कोई साधारण बालक नहीं है । उन्होनें उस ऋषि को आश्वस्त किया की आप जो भी उपाय बताएगे उसे मैं पूर्ण निष्ठा से करूँगा और अपने इस पाप से मुक्त हो जाऊँगा ।

        उस समय बालक ऋषि ने उपाय बताया कि शिवजी के जटाओ में जो गंगाजी विराजमान है उसे यदि आप भूमि पर लाओंगे और उस जल से स्नान करोगें तो ही आपके पाप का परिमार्जन होगा । पापसे मुक्त हो जाओगे। यह कार्य बहुत ही कठिन था कारण जो भगवान शिव को सबसे प्रिय थी, जिसकी शीतलता के कारण भगवान ने उसे अपने सिर पर धारण किया उसके वजह से ही भगवान गंगाधर कहलाए उस गंगा माँ को उनसे माँगना था । लेकिन इस पाप को दूर करने हेतू गौतमजी ने यह कार्य करने का निर्णय किया और इस उपाय का स्वीकार किया ।


‘‘गोहत्या पाप के परिमार्जन हेतू तपस्या’’


        बालक ऋषिने बताए हुए उपाय के अनुसार ब्रह्मऋषि गौतमजी ने भूतभावन भक्तोपर अनुकंपा करने वाले अशुतोष भगवान शिवजी की तपस्या करने हेतू ब्रह्मगिरी पर्वत पर औदुंबर वृक्ष के पास अपनी तपस्या आरंभ की, यह जो ब्रह्मगिरी पर्वत है, जो स्वयं ही शिवरूप है, ऐसा हमारे पुराणों में है कि, ब्र्रह्माजी के शाप से शिवजी पहाड़ हो गये, और ब्रह्मा के नाम से पहचाने जाने लगे । उसे ही ब्रह्मगिरी कहते है । ऐसे ब्रह्मगिरी पर्वत पर नित्य शिव की तपस्या करना पर्वत की हर रोज परिक्रमा करना, ऐसी घोर तपस्या ब्रह्मऋषि गौतमजी ने शुरू की, उनके तप से फिर से इंद्र को परेशानी व अस्वस्थता हो गयी । उनके तप में बाधा उत्पन्न हो इसलिए इंद्रने ब्रह्मऋषि गौतमजी की पत्नी जो पतिव्रता थी उसका पतिव्रतत्व भंग करने हेतू प्रयास किया जिससे गौतमजी विचलित हो जाय, विचलित मन तपस्या में कभी भी लगता नाहीं, एकाग्र नहीं होता । जिससे कार्य में बाधा उत्पन्न होती है । इसलिए इंद्र माया से गौतमजी का रूप धारण कर आश्रम में आया जहाँ एकांतमें अहिल्या अपने कार्य में व्यस्त थी । उसी समय गौतमऋषि भी आश्रम में प्रवेश कर गये । यह देख इंद्र दूर गया और वहाँ से निकलकर भागने लगा तो गौतमऋषि ने दोनो को शाप दे दिया की इंद्र जो देह अभिमानी था उसे कोड हो जायें । और अहिल्या जो इंद्र को जान न सकी उसे शिळा (पत्थर) होने का शाप दिया । लेकिन अहिल्या के क्षमा याचना करने पर उसे उःषाप मिला की जब रामजी आयेंगे तो उनके पदस्पर्श से पावन होकर आप भी नदी बन जाओगी ।

        ऐसे संकट की परीक्षा देते हुए गौतमऋषि अपनी तपस्या में जरा भी विचलित न होते हुए अनेकों साल शिवजी की तपस्या की है । और ब्रह्मगिरी पर्वत को हजारों प्रदक्षिणा की है । उसके फलस्वरूप माघ शुद्ध दशमी (१०) तिथी को भगवान शिव उनको प्रसन्न हो गये । भगवान आशुतोषजटा शंकरी को लेकर पुण्य पावन गंगा को अपने जटाओं में धारण कीए, गौतमजी के समक्ष प्रगट हो गये और उन्हे देखकर ब्रह्मऋषि गौतम भी आनंदित हो गये । अपने गौहत्यादी के पाप की निवृत्ति अवश्य होगी ऐसे वह आश्वस्त हो गए ।

ब्रह्माद्रिशिखरोत्पन्ने त्रिकंटक विराजते ।
गौतमप्रार्थिते गंगे गोदावरी नमोस्तुते ।।

        ब्र्रह्मगिरी के पावन शिखर पर जब शिवजी प्रगट हो गये तो ब्रह्मऋषि गौतम ने उनकी जटाओं में गंगा है, उसे अपने स्नान हेतू, जिससे गौहत्या का पाप परिमार्जन हो जाय इसलिए प्रार्थनापूर्वक माँगा तो भगवान ने गंगाजी को आज्ञा दी कि आप गौतम को पाप से मुक्त करो, अपने पावन जल से उसे स्नान कराओ तब शिवजी की जटा से गंगा की एक धारा प्रगट हो गयी, लेकिन गौतमजी ने उसमें स्नान नहीं किया उन्होने फिरसे प्रार्थना कि गंगाजी संपूर्ण रूप से आये और उनका प्रवाह यहाँ से शुरू हो तभी मै स्नान करूँगा । लेकिन गंगाजी पूर्ण रूप से नहीं आना चाहती थी, गंगा की इच्छा थी की गौतमजी स्नान कर ले और मैं फिर जटाओं में समा जाऊँगी । लेकिन गौतमजी कृषि तज्ञ थे वे जल का महत्त्व जानते थे, यदि गंगाजी नदी के रूप में बहती है तो समस्त प्राणी मात्र का कल्याण होगा । मेरे इतने साल की तपस्या का कुछ अच्छा परिणाम आये, ऐसा गौतमऋषि चाहते थे । तो गंगा को अपनी जटाओं से संपूर्णतः मुक्त करने कि प्रार्थना उन्होनें शिवजी से की। अपने भक्तोंपर कृपा करने वाले, मनोरथ पूर्ण करनेवाले भगवान शिवजिने गौतम की प्रार्थना मान ली और ब्रह्मगिरी पर्वतपर भगवान ने अपनी जटाओं को एक पत्थर पर पटक दिया और गंगाजी जटाओं से मुक्त हो गयी।

        जैसे ही गंगाजी मुक्त हो गई तो वह गुप्त हो गयी क्योंकि वह अपनी इच्छा से पृथ्वी पर प्रगट नहीं हुई थी, इस कारण वह गुप्त हो गई, लेकिन गौतमऋषि का तपोबल इतना था कि वह गुप्त रूप से उनके पीछे बहने लगी उपर पहाड पर गौतमजी का तपस्थान औदुंबर पेड के मूल से उनका पानी गिरने लगा फिर ब्रह्मगिरी पहाड़ के नीचेही गंगाद्वार नामक पहाड़ है । वहाँ पर गोमुख जैसे पत्थर के आकार से उनका पानी आते हुए दर्शन होता है । गंगाद्वार मे ही कोलासूर नामक दैत्य ने गंगा का पानी प्राशन करना शुरू किया तो जगत माता पार्वतिने वहाँ पर कोलासूर का वध किया। अभी वहाँ से कोलांबिका माता का मंदिर है और कोलाबिका माता के रूप में जगत्‌जननी पार्वती का पूजन किया जाता है। गंगाद्वार से गुप्त रूप में बहनेवाली गंगाजी को पहाड के नीचे गौतमऋषि ने अपने तपोबल से चार जगह दर्भ अभिमंत्रित करके डाले तो गंगा का पानी वहाँपर स्थिर हो गया। उसी कुंड को कुशावर्त कहते है । कुशासे (दर्भ) से गुप्त रूप में बहनेवाली गंगा को रोका गया इसलिए उस कुंड को कुशावर्त कुंड नामसे विश्वमें प्रसिद्ध हैं ।

कुशेना वर्तिता गंगा गौतमेन महात्मना ।
कुशावर्त मितीख्यातम्‌त्रिषुलोकेशु विश्रुतम्‌।।

        पुण्यपावनी गंगाजी जो गुप्त रूपसे ब्रह्मगिरी पर्वत से बहतीहुई गंगाद्वार होती हुई, कुशावर्त कुंड में स्थिर हो गई । उसी कुंड में गौतम ऋषीने स्नान किया तो उनका गौहत्या का महा पाप उतर गया । ब्रह्मऋषि गौतम गौहत्या से मुक्त हो गये । तो उन्होनें गंगाजी से प्रार्थना की मेरे हाथों से जिस गाय की मृत्यु हो गयी है उसे आप फिर जीवित कीजिए । तो तभी मेरे पाप का परिमार्जन होगा । ऐसी प्रार्थना करते ही वह गाय जीवित हो गई । तो इस कारण गंगाजी को गोदावरी यह नाम प्राप्त हो गया ।


।। गौतमस्य गां जीवदानं ददातिसा गोदा ।।


        ब्रह्मऋषि गौतमजी के गाय को जीवदान जिसने दिया वह गोदावरी । गोदावरी कुंड में ही समाई रहती तो लोगों के पाप तो धूल जाते लेकिन बाकी प्राणिमात्र को कृषि को इसका कोई भी उपयोग नहीं होता इसलिए गौतमजीने पुनः प्रार्थना । की कि, आपका प्रवाह शुरू होना चाहिए आप बहते-बहते यदि जाओगी और सागर में विलिन होगी तो आपके तटिय क्षेत्र में रहने वाले अनेको लोगों को इस जल का दर्शन होगा, उनका जीवन भी सुजलाम्‌, सुफलाम्‌हो जाएगा । इसलिए आप बहना शुरू कीजिए । आपका प्रवाह का दर्शन मैं करना चाहता हॅूं।

        ब्रह्मऋषि गौतमजी की प्रार्थना सुनकर गोदावरी (गंगाजी) ने भी शर्त रखी की, मैं स्वर्ग में रहती थी ब्रह्म कमंडल में मेरा वास होता था । जब ब्रह्माजी ने विष्णू भगवान का पूजन किया तो मै विष्णूजी के चरण कमलों में आ गई और मेरा जो पानी विष्णुजी के चरण कमलो में छलका वह शिवजी ने अपने जटाओं में धारण किया । इस कारण मुझे तीनों देवताओं का सान्निध्य प्राप्त है । इसलिए मैं तीनों लोकों में पुजनीय हूँ। तो मेरी ऐसी इच्छा है की, यह तिनो देवता यदि लिंग स्वरूप मेरे सन्निध में हमेशा वास करे । उनका सन्निध मुझे प्राप्त हो, तब मेरा प्रवाह शुरू हो जाएगा । ऐसी गोदावरी कि प्रार्थना सुनते ही ब्रह्माजी, विष्णुजी और महेशजी (शिवजी) तीनों देवता प्रगट हो गये और उन्होंने गोदावरी (गंगा) को वचन दिया की हम तीनों भी इस क्षेत्र में लिंग स्वरूप हमेशा वास करेंगे ।

        तीनों भगवान तो जगत के उत्पत्ति कर्ता, पालन कर्ता और संहार कर्ता है और अपने भक्तों के हर मनोरथ पूर्ण करते है, ऐसी उनकी विशेषता है, वह तीनों लिंग रूप से यहाँ पर प्रगट हो गए उसे ही अद्य ज्योतिर्लिंग त्र्यंबकेश्वर कहते है । जो तीनों देवता लिंग रूप आजभी विराजमान है और समस्त भक्तों के सभी मनोरथ पूर्ण करते है ।

        जब भगवान त्र्यंबकेश्वर के रूप में प्रगट हो गए तो गंगाजी भी बहने लगी, प्रवाहित होने लगी और इस क्षेत्र को गौतमजी के तपो भूमि को त्र्यंबकेश्वर क्षेत्र के रूप में विश्व में माना जाने लगा ।

        इस क्षेत्र से (गंगाजी) गोदावरी बहती हुई राजमहेंद्री को मतलब दक्षिण भारत को पावन करती हुई सागर को मिलती है । यह दक्षिण वाहिनी ‘‘गंगा’’ का उगम स्थान है । और जो उत्तर भारत में बहती वह भागीरथी गंगा जो गंगोत्री से प्रगट हुई है और गौतमी गंगा की वह छोटी बहन है क्योंकि वह गोदावरी के बाद भूमिपर प्रगट हुई है। इसलिए अपने पुराणों में गोदावरी को वृद्धा गोदा भी कहते है ।

        यह त्र्यंबकेश्वर क्षेत्र ब्रह्मऋषि गौतम की तपोभूमि (गंगा) गोदावरी महानदी का प्रारंभ मूल स्थान और इस जगत्‌के जो उपादान कारण और निमित्त कारण है ऐसे ब्रह्माजी, विष्णुजी, शिवजी (महेश) तीनों देवता विराजमान है यह शिव क्षेत्र तो है ही लेकिन विष्णुक्षेत्र भी यहीं पर भगवान ने दिखाया है कि ‘‘हर और हरी’’ में कोई भेद नही है । भक्त केवल भगवान की उपासना करे, सेवा करे और अपना मानव जीवन सफल करें । ऐसा पावन क्षेत्र है त्र्यंबकेश्वर इसलिए इस भूमि में ग्रहादी कोई भी दोष जैसे कालसर्प दोष (राहूकालसर्प दोष) मंगल, शनि आदि ग्रहों का दोष, पितृदोष निवारण हेतूनारायण नागबली का पूजन और प्रेत योनि में गए हुए पीतरों के लिए त्रिपींडी श्राद्ध या फिर तीर्थयात्रा करने आए हुए भाविकों के लिए गंगा पूजन, तीर्थ श्राद्ध तथा महा मृत्यूंजय त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग का रूद्र अभिषेक सपादलक्ष (१ लाख २५ हजार) महामृत्यूंजय जप अनुष्ठानादि कर्म यहाँ पर कीए जाते है । जो भक्त श्रद्धायुक्त अंतःकरण से जो भी कर्म इस भूमि में आकर करेगा उसके सभी मनोरथ भगवान अशुतोष, विश्व के पालनहार जो तीनो रूपों में यहाँ पर विराजमान है वह पूर्ण करते है और भक्त अपने आधिदैविक, आधीभौतिक, आध्यात्मिक तथा सुखों को प्राप्त करता है ।

त्र्यंबकेश्वर क्षेत्र में होनेवाली विशेष पूजा :-


१. राहूकालसर्प योग शांति.
२. पितृदोष पूजा (नारायण नागबली पूजा)
३. त्रिपिंडी श्राद्ध पूजा.
४. गंगा पूजन, तीर्थ श्राद्ध पूजा (तीर्थविधी) तथा और्ध्वदेहीक कर्म.
५. महामृत्यूंजय मंत्र जप, रूद्राभिषेक पूजा.